|| निर्गुन पराती ||
" मंजिल दूर संग नहि पाथे "
मुसाफिर चेतहुँ एहु घरी ।
मंजिल दूर संग नहि पाथे
बान्धि लेहुँ गठरी ।। मुसाफिर....
यह मणि-प्राण पुरत दिन जबहीं
रहत न एक घरी ।
रतन स्वर्ण धन महल अटारी
सब सुनसान परी ।। मुसाफिर...
अर्धाङ्गिंन अधिकार अदा करि
रुदन करत देहरी ।
मातु पिता सुत सगा सम्बन्धित
स्मसान नगरी ।। मुसाफिर....
जो मद पाय रतन तन सुन्दर
जरत सो जस लकड़ी ।
"रमण" कठिन पथ पथिक न पाबय
चिन्ता जाहि परी ।। मुसाफिर....
रचयिता
रेवती रमण झा " रमण "
" मंजिल दूर संग नहि पाथे "
मुसाफिर चेतहुँ एहु घरी ।
मंजिल दूर संग नहि पाथे
बान्धि लेहुँ गठरी ।। मुसाफिर....
यह मणि-प्राण पुरत दिन जबहीं
रहत न एक घरी ।
रतन स्वर्ण धन महल अटारी
सब सुनसान परी ।। मुसाफिर...
अर्धाङ्गिंन अधिकार अदा करि
रुदन करत देहरी ।
मातु पिता सुत सगा सम्बन्धित
स्मसान नगरी ।। मुसाफिर....
जो मद पाय रतन तन सुन्दर
जरत सो जस लकड़ी ।
"रमण" कठिन पथ पथिक न पाबय
चिन्ता जाहि परी ।। मुसाफिर....
रचयिता
रेवती रमण झा " रमण "
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